Sunday, August 18, 2013

मधेशीयों की राष्ट्रीयता और नेपाली पहचान – एक विश्लेषण



मधेशीयों की राष्ट्रीयता और नेपाली पहचान – एक विश्लेषण
(United Youth for Madhesh – Think Tank)

दृष्टिकोण –
दृष्टिकोण न. 1 –
जितने लोगों को भारतीय नेपाली कहा जाता है भारत में उनमें मधेशी लोग नही आते। अगर “नेपाली” हमारे देश की वास्तविक राष्ट्रीय पहचान होती तो बेहिचक जितनी मधेशी महिलाएँ हमारे देश से भारत में विवाह पश्चात बस जाती हैं उन्हें भी “नेपाली” कहा जाता। लेकिन ऐसा नही होता, न तो भारत के नेपाली संगठन के लोग इन मधेशीयों को नेपाली मानते हैं न भारत सरकार अपने नीति निर्माणों में इन लोगों को “नेपाली” कहती है।

दृष्टिकोण न. 2 –
हमारे देश के पहाड़ी लोगों के मुताबिक सिक्किम/दार्जिलिंग और कुछ गढ़वाल के लोग नेपाली इसलिये हैं क्योंकि ये सब जगह किसी समय “ग्रेटर नेपाल” के हिस्से थें। लेकिन उन्हीं के मुताबिक आज के युपी और बिहार के भी बहुत से इलाक़े “ग्रेटर नेपाल” के हिस्से थें, लेकिन वहाँ के गुप्ता, श्रिवास्तव, झा, यादव, चौधरी, आदि लोगों को नेपाली कभी नही कहा जाता।

दृष्टिकोण न. 3 –
मधेश में आम बोलचाल की भाषा में आज भी पहाड़ी लोगों को ही नेपाली कह के बुलाया जाता है, मधेश की भाषाओं में कुछ ऐसे शब्द तक हैं जो विशेष रूप से पहाड़ी लोगों के लिये ही प्रयोग होते हैं जैसे कि “नेपलिया” , इसी शब्द को वाक्य में बोलने पर जैसे कि – “हमर लइकावा त साफा नेप’लिया गईल”, मधेशी के नेपालीकृत होने की भावना प्रकट की जाती है। यहाँ तक कि कई बार मधेश के पहाड़ी लोग भी आम बोलचाल में “नेपाली” स्वयम् पहाड़ी समुदाय को मधेशी समुदाय से भिन्न दर्शाने के लिये प्रयोग करते हैं। जाने अनजाने में प्रयोग होने वाली बातें राजनीतिक रूप से प्रेरित होकर नही कही जाती और कई बार जो सच है वो जाने अनजाने में ही निकलता है किसी की बोली से।

दृष्टिकोण न. 4 –
हमारे देश का संविधान कभी भी “नेपाली मूल” को स्पष्ट रूप से परिभाषित नही कर सका है और जो “नेपाली” का संवैधानिक अर्थ है वो वास्त्विक अर्थ से भिन्न है, फलस्वरूप ये सभी शब्द हमेशा से सन्देहास्पद रहे हैं। कभी बर्मा के थापा, गुरुंग, लिम्बु आदि लोगों को कांतिपुर अख़्बार में नेपाली कह के सम्बोधित किया जाता है तो कभी दार्जिलिंग के तामांग, नेवार आदि को नेपाली भाषी कह के।

दृष्टिकोण न. 5 –
बहुजातीय देशों की राष्ट्रीयता के साथ देखा गया है कि उन देशों की सीमाओं के आर-पार उनकी राष्ट्रीयता नहीं जाती, केवल उस देश के अन्दर के कोई जातीय समुदाय की पहचान उस देश की अंतरराष्ट्रीय सीमा के आर-पार पाई जाती है। या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बहुजातीय देशों के लिये राष्ट्रीयता उस देश की सीमाओं से बंध जाने वाली पहचान है जबकि जातीयता सीमा से कभी न बंधने वाली पहचान है। उदाहरण के तौर पर भारत की राष्ट्रीयता यानी भारतीय या इंडियन पहचान उसके किसी भी सीमा के आर-पार नही पाई जाती बल्कि पंजाबी, बंगाली, कश्मीरी इत्यादि पहचान जो जातीयता हैं, सीमा के आर-पार पाए जाते हैं। युरोप और पूर्वी एशिया के कई देश जहाँ सीमा के आर-पार राष्ट्रीयता जाती है दरअसल वो सभी राष्ट्र बहुत हद तक एकल-जातीय देश हैं बहुजातीय नहीं, जैसे कि जर्मनी, पोलैण्ड, रूस, कोरिया, जापान आदि। इन सभी देशों को एकल-जातीय देश इसलिये कहा जा सकता है क्योंकि उन राष्ट्रों की पहचान उस देश के लोगों के एक बहुमत समुदाय की जातीयता से ही है , जैसे की जर्मनी में 81% लोग “जर्मन जातीय समूह” के हैं और उन्हीं के  कारण से जर्मनी की राष्ट्रीयता “जर्मन” कहलाती है।

दृष्टिकोण न. 6 –
मधेश में कुछ जगहों या टोल/मोहल्ले के नाम ऐसे हैं जो पहाड़ी और नेपाली पहचान के पर्यायवाची होने का अर्थ बयान करते हैं। उदाहरण के तौर पर बारा ज़िले के नौतन गाँव में एक टोल का नाम “नेपाली टोल” है और स्थानीय लोगों के मुताबिक वहाँ पहाड़ी लोगों ऐतिहासिक रूप से घणत्व अधिक होने से उसका नाम “नेपाली टोल” पड़ा है।

प्रचलित नेपाली पहचान बनने के पीछे का कारण  -
सामाजिक और सांस्कृतिक सदृषिकरण के कारण नेपाली सम्पर्क भाषा स्थापित हुए समुदायों की जातीय पहिचान नेपाली हुई, जिससे आज हम पाते हैं कि जिन पहाड़ी जातियों की मातृभाषा मूलत: नेपाली नही भी है तो भी वो नेपाली भाषा को अपनी संस्कृति से बेहद करीब से जोड़कर देखते हैं। भारत में तो राई लिम्बु गुरुंग तामांग इत्यादि लोग भारतीय संविधान में अपनी अपनी मातृभाषा होते हुए भी नेपाली के पक्ष में खड़े हुए, सम्भवत: कारण वही था: गहरा सांस्कृतिक लगाव इन सभी पहाड़ी जातियों का नेपाली भाषा से।

पहले पहाड़ी लोग ही हमें नेपाली नही कहते थें, अब वो चाहते हैं कि हम किसी भी हालत में अपने आप को नेपाली पहचान से अलग न करें, आख़िर क्यों ? –
इस सवाल का जवाब पाने के लिये नेपालीकरण की प्रक्रिया को गहराई से समझने की ज़रूरत है। मधेशी लोगों के नेपालीकरण को हम 3 चरणों में बांट सकते हैं –
1. नेपालीकरण का प्रारम्भिक चरण
2. नेपालीकरण का माध्यमिक चरण, और
3. नेपालीकरण का गम्भीर चरण

पहले चरण तक मधेशी लोग मधेशी और नेपाली/पहाड़ी पहचान के बीच की दूरी को साफ़ साफ़ भाँप लेते हैं। आजकल ऐसे मधेशी केवल वो रह गए हैं जो या तो अनपढ़ हैं या कम पढ़े लिखे हैं, या महिलाएँ हैं, या वृद्ध हैं, क्योंकि इन लोगों का सबसे कम सामाजिक सम्पर्क हुआ है पहाड़ी या नेपालीयों से। इन लोगों को नेपाली भाषा ना के बराबर आती है, और कह सकते हैं कि बिल्कुल शुद्ध रूप से वो मधेशी संस्कृति, रहन सहन, बोली-व्यवहार आदि का पालन करते हैं। इन्हें वो हर चीज़ जो मधेशीयों से सम्बन्धित है उसपर गर्व होता है और पहाड़ी संस्कृति से जुड़ी हर वस्तु को तुच्छ समझते हैं।

दूसरे चरण के मधेशी वो हैं जो पढ़ाई लिखाई या पहाड़ीयों के साथ सामाजिक सम्पर्क से इस देश को देखने के उस दृष्टिकोण को
आत्मसाथ करने लगते हैं जो मूलत: मधेशी दृष्टिकोण नहीं होता, एक नेपाली का दृष्टिकोण होता है। वो उन्हीं लोगों और परिपेक्षों के बारे में पढ़ते हैं जिनके बारे में उन्हें पढ़ाया जाता है। इस चरण में जो जो वस्तुएँ किताबों तथा अन्य संचार माध्यम द्वारा उस मधेशी के दिलो-दिमाग़ में डाली जाती है उसका सम्मान मधेशी लोग करने लगते हैं भले ही वो वस्तुएँ उनसे जुड़ी हो या ना हो। जैसे कि इसी चरण में मधेशी लोगों में प्रगाढ़ स्नेह और आदर पनपता है डांफे, लालीगुरांस, पहाड़ी संस्कृति, उनके त्योहार आदि पर। इस काल में मधेशी लोग अपने आप को नेपाली कहलवाना पसन्द करते हैं। इस चरण में मधेशी लोगों को अपनी संस्कृति के प्रति हीनता भाव उत्पन्न होने लगता है। इस चरण में मधेशी लोग नागरिकता का महत्व समझते हैं और नागरिक कहलाने के लिये जो नेपाली कहलाना अनिवार्य है उसी के अनुरूप वो अपने आपको नेपाली समझते हैं, हालांकि बड़े बुज़ूर्ग क्यों अपने आपको नेपाली नहीं कहते इस बात का कभी ख़याल नही आता मन में। मधेश आन्दोलन से पूर्व अधिकतर मधेशी इसी चरण से गुज़र रहे थें। आज भी बहुत से मधेशी इसी चरण के आगे-पीछे मंडरा रहे हैं।

तीसरा चरण गम्भीर नेपालीकरण से ग्रसित लोगों में देखा जाता है। इस चरण की विशेषता ये है कि इसमें मधेशीयों की मानसिकता पर नेपाली मानसिकता पूर्ण रूप से हावी हो जाती है। ऐसे लोग हीन भावना से ग्रसित होकर मधेशीयों की सम्पूर्ण समस्याओं के ज़िम्मेवार मधेशीयों को ही मानते हैं। इनका ये मानना होता है कि मधेशी लोग उन्नति करने लायक ही नही हैं और भारत विरोधी मानसिकता से ग्रसित हो जाते हैं। ये लोग मधेशी समाज के बारे में सतही ज्ञान रखते हैं और अगर मधेशीयों के बारे में कोई शोध करते हैं तो यही सतही ज्ञान इन्हें पहाड़ी दृष्टिकोण के मुताबिक संकुचित शोध करने पर विवश कर देता है। बहुत से मधेशी लोगों में दूसरे चरण के बाद जागरूकता आ जाती है और वो कभी तीसरे चरण में प्रवेश नही करते, कुछ लोग जो मधेश आन्दोलन के पूर्व ही गम्भीर नेपालीकरण के शिकार थें वो मधेश आन्दोलन से आई जागृति से नेपालीकरण के सभी निशानियों को नकार चुके हैं या तीसरे चरण से पुन: दूसरे चरण में वापस चले गए हैं। हालांकि कुछ मधेशीयों के साथ ऐसा नही हो पाया और वो पूर्ण रूप से नेपलीकृत हो गए।

50-60 वर्ष पहले सभी मधेशी नेपालीकरण के प्रारम्भिक चरण में थें, तो ज़ाहिर है कि जो निशानियाँ “नेपाली” पहचान से जुड़ी होती हैं वो बिल्कुल दिखता ही नही था मधेशीयों में। फलस्वरूप नेपाली लोगों को भी स्यवम् विशाल अन्तर दिख जाता उनकी अपनी संस्कृति और मधेशीयों की संस्कृति में। अत: मधेशीयों को “नेपाली” कोई नही कहता था, और उस काल में देश-विभाजन का ख़याल किसी में न था और नेपालीयों का देश पर जो दबदबा था उस दबदबे को मधेशीयों की कोई चुनौती नहीं थी अत: किसी नेपाली को महसूस नही होता था कि अगर हम मधेशी लोगों को नेपाली नही कहेंगे तो देश में मधेशीयों द्वारा बग़ावत हो सकती है राष्ट्र की पहचान को लेकर।

अब धीरे धीरे नेपाली लोगों को पता चल गया है कि मधेशीयों को समानाधिकार दिये बग़ैर गुज़ारा नही हो सकता। उनकी सोंच के अनुसार अब अगर वो मधेशीयों को नेपाली नही कहेंगे तो उन्हें स्वयम् बेहद नुक्सान उठाना पड़ेगा, क्योंकि अब वो ये नही कह सकते कि,  “मधेशीहरू सब देश बाहिर बाट छिरेका आगंतुकहरू हुन्” , इस खोखले दलील में कोई दम नहीं रह गया ये वो भी जानने लगे हैं। अब उन्हें डर है कि अगर मधेशीयों को नेपाली नही कहा गया तो या तो देश का विभाजन करने वालों को एक मज़बूत बहाना मिल जाएगा, या फिर देश की पहचान में आमूल परिवर्तन करना ही पड़ेगा। और यदि ऐसा हुआ तो एक प्राकृतिक पकड़ जो उनका बना हुआ है मधेशीयों पर वो खो जाएगा, इसलिये वो ऐसे नारे देते हैं जिससे मधेशी लोगों में स्वयम् नेपाली होने का भ्रम सृजना हो जाए, जैसे कि – “ मधेसी, पहाड़ी र हिमाली , हामी सबै नेपाली “। यानी कि मधेशीयों का नेपालीकरण करके उन्हें अपने वश में कर लेने के अंतिम हथियार के रूप में मधेशीयों को भी नेपाली बनाने की चेष्टा करते हैं।

नाम परिवर्तन से मधेशीयों को अनुमानित लाभ –
देश के नाम परिवर्तन से मधेशीयों को निम्नलिखित लाभ मिलने का अनुमान लगाया जा सकता है : -
1. वर्तमान में देश के इतिहास के रूप में पढ़ाई जाने वाली बातें केवल देश के आधे लोगों का इतिहास और गौरव की गाथा है ये स्पष्ट रूप से समझ लेने की क्षमता का विकास होगा मधेशी जन जन में, और अंतत: समूचे देशवासीयों में, क्योंकि नेपाल का इतिहास केवल नेपालीयों का इतिहास है और बाक़ि आधी आबादी यानी मधेशी का इस ऐतिहासिक परिपेक्ष से बेहद कम सम्बन्ध है। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर लिखे जाने से तथा हर घटना को नेपाली दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने से ही मधेशी लोगों में विभिन्न क़िस्मों के भ्रम सृजना हो जाते हैं।

2. देश का स्वत: दो जातीय प्रान्त, यानी मधेश प्रान्त और नेपाल प्रान्त, में श्रेणीकरण हो जाने से जितने नेपाली लोग मधेश में बसेंगे वो प्राकृतिक रूप से मधेशी भाषा, संस्कृति, रहन सहन, इत्यादि का सम्मान करेंगे और यथोचित स्तर तक अंगिकार भी करेंगे, क्योंकि जब वो मधेश में बसेंगे उन्हें पता होगा कि वो नेपाल से बाहर आ चुके हैं अत: क्षेत्रीय भाषा-संस्कृति का आदर करना उनका कर्तव्य होगा। शुरू-शुरू में विरोध तो होगा मगर धीरे धीरे वो अंगिकार करेंगे क्योंकि मधेशी लोगों की पकड़ मधेश में मानसिक और सामरिक रूप से बढ़ जाएगी।

3. मधेशीयों के हो रहे नेपालीकरण पर पूर्ण विराम लगाया जा सकेगा, क्योंकि मधेशीयों को भी ये आभास हो जाएगा कि उन्हें देश का नागरिक बनने के लिये नेपाली कहलाना अब कोई आवश्यकता नहीं। इससे मधेशीयों के आत्मसम्मान को बढ़ाया जा सकेगा और जो वास्त्विक पहचान है मधेशीयों की उसी का संवर्धन करके राष्ट्रीयता को संग संग आगे बढ़ाया जा सकेगा।

4. वर्तमान में अपमानजनक बातें जो सुनने पड़ते हैं मधेशीयों को जैसे कि – “तुम तो नेपाली जैसे लगते नहीं”, परिवर्तित राष्ट्रीय पहचान में हम अपने आपको नेपाली कहेंगे ही नहीं तो ऐसी अपमानजनक बातें कहने का किसी को मौक़ा ही नही मिलेगा।

5. विदेशों में रह रहे नेपाली Diaspora के लोग दुनिया भर में हमारी राष्ट्रीय पहचान को जातीय रूप देकर विभिन्न समारोह और अंतरराष्ट्रीय मंचों में प्रचारबाज़ी करते हैं जिससे केवल अपने देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हम मधेशीयों के बारे में कई अफ़्वाहें फैलाने में नेपाली लोग क़ामयाब हो जाते हैं, नाम परिवर्तित हो जाने से जो हमारे देश के नेपाली हैं उन्हें ये विवशता होगी कि हमारे देश से बाहर गए लोगों के साथ हमदर्दी जताएँ ना कि भारत, भूटान और बर्मा के नेपालीयों के साथ मिलकर देश में से केवल आधी आबादी की वक़ालत करते फिरे विदेशों में।

अन्य कई लाभ हैं जिससे देश पर मधेशीयों का न्यायोचित हक़ जमेगा और सामरिक रूप से वो हावी होंगे राष्ट्र पर, कुछ परिवर्तन अकल्पनीय भी हैं जो पुन:नामकरण से हासिल हो सकते हैं।

हमारे देश के नाम से भारतीय नेपालीयों को समस्या –
वैसे तो कई लोग कहेंगे कि हम मधेशीयों को क्या लेना देना भारत के नेपालीयों की समस्या से, उनकी समस्या वो ही जानें, लेकिन दरअसल बात ये है कि इस समस्या का सम्बन्ध हम मधेशीयों से भी ही है। उनकी समस्या दूर होती है तो विशेष राहत हम मधेशीयों को भी होगा क्योंकि भारत भ्रमण पर हम जब जाते हैं तो उस समय हम आधिकारिक रूप में नेपाली होते हैं, और वो लोग भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नेपाली समुदाय हैं। तो असल में नेपाली पहचान है किसकी ? हमारी या उनकी ?

भारतीय नेपालीयों को विदेशी समझा जाता है जब भी वो भारत में ग़ैर-नेपालीयों के बीच अपनी “नेपाली” पहचान के बारे में सुनाते हैं तो। समस्या संवैधानिक नहीं है, समस्या अन्य भारतीयों की उनके प्रति रहे भ्रम में है, और अन्य भारतीयों को क्यों भ्रम हो जाता है इस बात की तह तक जाने पर यूँ लगता है उनकी इस समस्या का हल भारत से अधिक हमारे पास है, हमारी समस्या और उनकी समस्या एक ही साथ समाधान हो सकती है  !

हमारे देश का पुनर्नामकरण कर देने से “नेपाल” नाम का कोई देश रहेगा ही नही तो सोंचिये भारत का एक ग़ैर-नेपाली आम नागरिक अपने देश के ही नेपाली लोगों को ये तो नही कहेगा कि तुम नेपाल देश से आए हो। भारत का बंगाली बंगाल से आया है, भारत का पन्जाबी पंजाब से आया है तो इसी तरह आम लोग बोलते हैं कि भारत का नेपाली नेपाल से आया है, और वर्तमान परिपेक्ष्य में नेपाल भारत का पड़ोसी देश है इसलिये भारत के नेपाली लोग विदेशी कहला जाते हैं अपने ही देश में। हमारे देश का नाम बदल जाता है तो भी भारत के नेपाली लोग तो नेपाली समुदाय ही रहेंगे, और जिस तरह अन्य जातीयताओं का जातीय क्षेत्र होता है उसी तरह भारतीय नेपाली लोग भारत में अपनी भूमी को “नेपाली क्षेत्र” या केवल “नेपाल” कह सकेंगे। और जब भारत के अन्दर का ही एक प्रांत का नाम नेपाल होगा तो ज़ाहिर है कि नेपाल प्रांत में रहने वाले लोग हुए “नेपाली”। तो इस तरह भारत के नेपालीयों के समस्या का समाधान भी हम मधेशीयों के देश के पुनर्नामकरण की आकांक्षा से ही निकलता हुआ दिख रहा है।

देश के पुनर्नामकरण के लिये विगत में उठी आवाज़ें –
देश के पुनर्नामकरण के लिये विगत में कई बौद्धिक वर्गों द्वारा मांग उठती आई है, हालांकि इसके कारणों का विस्तारपूर्वक शोध किसी के द्वारा न होने के चलते ये मांग अन्य बदलावों के मांग के तले दब जाती रही है। सी के लाल द्वारा “नेपाली” शब्द के अलावा एक नया शब्द “नेपालीय” इजात करने की सलाह उनकी पुस्तक “नेपालीय हुनलाई” द्वारा 2068 साल में दी गई1। उनके हिसाब से नेपाली एक जातीयता दर्शाने वाला शब्द होने के नाते देश की राष्ट्रीयता दर्शाने के लिये नए शब्द की आवश्यकता होने की बात कही गई।

इससे पहले कुछ लेखक लोग हमारे देश की राष्ट्रीयता को अंग्रेज़ी शब्द “नेपलीज़” द्वारा लोकप्रीय किये जाने के पक्ष में बाते करते थें और उनकी दलील थी कि “नेपाली” शब्द पहाड़ी समुदायों की जातीय पहचान होने के चलते मधेशी लोगों को “नेपाली” कहकर पुकारना भ्रामक हो जाता है।2,4

पिछले साल संविधान सभा के विघटन के पूर्व सरिता गिरी की सदभावना पार्टी (आनंदी देवी) द्वारा संवैधानिक समिती में देश के नाम परिवर्तन की मांग विधिपूर्वक दर्ता कराई गई। उनके प्रस्ताव अनुसार देश का नयाँ नाम “संघीय गणतांत्रिक सगरमाथा” होना चाहिए। और उम्मीद के मुताबिक मधेशवादी दलों को छोड़ के बाक़ि सभी पार्टी का इस मांग प्रति कड़ा ऐतराज़ भी सुनने को आया।3

नयाँ नाम प्रस्तावित करने वालों में से तराई की एक भूमिगत सशस्त्र संगठन “संयुक्त जनतांत्रिक तराई मुक्ति मोर्चा” के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में एनेकपा माओवादी के केंद्रीय सदस्य प्रह्लाद गिरी पवन का भी रहा है। मधेश आन्दोलन के पश्चात उनका प्रस्तावित नाम “हिमायलन स्टेट्स युनियन” आम लोगों को सुनने में आया।

एक अन्य सशस्त्र संगठन के नेता चन्द्रशेखर झा द्वारा “महिप” यानी “मधेश हिमाल पहाड़” नाम भी प्रस्तावित किया गया।

अन्य लोग भी नाम परिवर्तन के पक्ष में मधेश आन्दोलन के पूर्व से ही आवाज़ें उठाते रहे हैं, जैसे कि सी.के. राउत (ग़ैर आवासीय मधेशी संघ के अध्यक्ष), सुजित कुमार ठाकुर (अखिल भारतीय मधेशी छात्र संघ के अध्यक्ष तथा वर्तमान में ग़ैर आवासीय मधेशी संघ भारत के अध्यक्ष), आदि।

फ़ेसबुक पर भैरहवा की एक छात्रा जियरा शाह द्वारा 2066 साल से देश के नाम परिवर्तन के पक्ष में आवाज़ें उठाई जा रही हैं। उनके फ़ेसबुक अभियान पर देश के पुनर्नामकरण के पक्ष में कई प्रस्ताव उठ चुके हैं जैसे कि – उत्तरवर्ष, आर्यवर्ष, मधेश नेपाल युनियन, आदि।


कुछ अन्य देश जिनके नाम परिवर्तित हुए हैं किसी कारणवश :

New Holland – Australia
Honduras – Belize (1973)
Upper Peru – Bolivia (1825)
Khmer Republic – Kampuchea (1975) – Cambodia (1991)  
New Grenada – Colombia (1863)
Bohemia – Czechoslovakia (1918)
East Timor – Timor-Leste (2002)
Abyssinia – Ethiopia
Guinea – Guinea Bissau (1979)
Persia/Faras – Iran (1979)
Mesopotamia – Iraq (1932)
New Spain – Mexico (1821)
Bessarabia – Moldova (1991)
Spanish East Indies – Philippines (1898)
Temasek – Singapore
Ceylon – Sri Lanka (1972)
Guiana – Suriname (1975)
Rhodesia – Zimbabwe (1980)
Siam – Thailand (1949)
Burma – Myanmar (1988)








सारांश-
केवल मधेशीयों की बोली से नहीं , बल्कि पहाड़ी जनसमुदायों की बोली से भी नेपाली और पहाड़ी एक ही बृहत समुदायका पर्याय होने की बात और मधेशी एक अलग जातीय समुदाय होने की बात पुष्ट होती रही है। लेकिन राष्ट्र का नाम ही नेपालहो जाने से हम नेपाली नही हैंकहने से हम इस राष्ट्र के नही हैं जैसी अनुभूति आ जाती है, फलस्वरूप, मधेशीलोग जाने अनजाने में अपना नेपालीकरण करने के लिये बाध्य हो जाते हैं , नागरिक बन्ने के बजाए नेपालीकहलाने के लिये अपनी पहचान को तुच्छ समझ कर या उसे त्यागकर अधिक से अधिक नेपाली बनने के लिये आतुर हो जाते हैं, क्योंकि “नेपाली” पहचान हमारे देश की राष्ट्रीयता के रूप में हम पर लाद दी गई है। हम मधेशी अपने देश के नागरिक होने में और नेपाली बनने के बीच फ़र्क़ नहीं कर पाते। ये नेपालीकरण की प्रक्रिया मधेशीयों को हीनभावना से भर देता है जिससे हम और बड़े पक्षपात की ओर धकेले जाने लगते हैं।

राष्ट्रकी संस्कृति, इतिहास और मानसिकता को भी यही नेपालीकरण नामक सदृषिकरण की प्रक्रिया मधेशीयों के अस्तित्व के प्रति सहिष्णुता भाव पैदा होने से निरंतर रोकता रहता है। हम मधेशी बारम्बार इस अन्याय के चेपेटे में फंस जाते हैं और ऐसा लगता है मानो इस राष्ट्र में हमें “एड्जस्ट” होके रहने की आदत डाल लेनी चाहिये, क्योंकि ये राष्ट्र हमारे लिये बना ही नही है।

इस राष्ट्र के दो भूगोल ही दो जातीय क्षेत्र हैं
, एक मधेश और दूसरा नेपाल, लेकिन देशके वर्तमान नामसे एकात्मकता का भयंकर भ्रम सृजना होने की वजह से राष्ट्र के पुनर्नामकरण के बारे में गहराई से सोंचने का समय आ चुका है। 

http://madhesh.org/articles/peaceful-resolution-of-ethnopolitical-movement-in-nepal-madhesh/


References:
1. http://books.google.com.np/books/about/Nepaliya_hunalai.html
2. http://madhesh.org/articles/peaceful-resolution-of-ethnopolitical-movement-in-nepal-madhesh/
3. http://www.ekantipur.com/2012/05/11/headlines/Giri-floats-new-name-for-country/353745/
4. http://www.hindu.com/op/2005/06/19/stories/2005061901081400.htm - “Nepali speaking Indians are often confused with the Nepalese of Nepal




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मधेसिया लोगों और ने'पलिया लोगों से मिलकर बने हमारे देश की पहचान एक मात्र "नेपाली" कैसे हो सकती है ? क्या ये पहचान मधेसी लोगों पर अन्याय नही है ?
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मधेशियों को अब कठोर रन निति लेकर आगे बढ़ना होगा .मधेशमें पहाड़ी खष भाषा, दौरा शुरुवाल,ढाका टोपी बंद करो |मधेश का संपर्क भाषा हिंदी कायम करो | मधेश में मधेशी भाषा लागु करो | मधेशी का शान है धोती ,कुरता ,पाग और गमछी | जो धोती का बिरोध करेगा उसको समस्त मधेशी उसका बिरोध करे और उसको मुहतोड़ जवाफ दे ...जय मधेश एक अलग देश मधेश हमारा... है..| भगवान गौतम बुद्ध का जन्म मधेश में हुवा है | भगवान गौतम बुद्ध मधेशी है..| बुद्ध भगवान का जन्म नेपाल में ... भारत में नहीं हुवा है | जिस समय भगवान बुद्ध का जन्म हुवा नेपाल का कोई नाम निशान नहीं था | मधेश सदियों से है | अगर आप लोग सच्चे मधेशी हो तो जरुर इस पेज को लैक और शेयर कीजियेगा | जय मधेश देश जिन्दा बाद पहाड़ी ढाका टोपी दौरा शुरवाल मुर्दा बाद | धोती कुरता जिन्दा बाद.. जय मधेश और मधेशी जिन्दा बाद ... समस्त मधेशी एक जुट होना जरुरी है | मधेश का संपर्क भाषा हिंदी कायम करो

मधेशी युवा एकता" जिन्दाबाद। मधेशी युवा सब एक जुट होऊ।
"स्वतन्त्र मधेश राज्य " एक मधेश देश "
.......जय मधेश देश ! जय मधेश देश........जय मातृभूमि........जय मातृभूमि.
"मधेश" हम को जान से भी प्यारा है ,सब से न्यारा गुलिस्तान हमारा है.
सदियोंसे "मधेश" भूमि दुनिया की शान है, "मधेश" माँ की रक्षा में, जिन्दगी कुर्बान है..............जय मधेश देश.



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